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हिमालय नीति के बिना सस्टेनेबल जीवन की कल्पना व्यर्थ…

Without a Himalayan policy, imagining sustainable life is futile

हिमालय आध्यत्मिक प्रेरणा का स्त्रोत है और यह प्राकृतिक देन है। इसके अंग-प्रत्यंग (नदी, ग्लेशियर, जंगल, जमीन) बिकाऊ नहीं बल्कि टिकाऊ बनाये रखने में हमारी भूमिका होनी चाहिये

हिमालय बचाओ! केवल नारा नही है। यह हिमालय क्षेत्र में भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का एक रास्ता बता रहा है। क्योंकि पहाड़ की महिलाओं ने चिपको आंदोलन के दौरान कहा कि ’’मिट्टी, पानी और बयार! जिन्दा रहने के आधार!’’ और आगे चलकर रक्षासूत्र आन्दोलन ने नारा दिया कि ’’ऊंचाई पर पेड़ रहेंगे! नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे!’’, आदि के निर्देशन हिमालय के लोगों ने देशवासियों को दिये हैं।

विश्व विख्यात पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा कहते थे कि ’’धार ऐंच पाणी, ढाल पर डाला, बिजली बणावा खाला-खाला!’’ इसका अर्थ यह है कि चोटी पर पानी पहुंचना चाहिये, ढालदार पहाडियों पर चौड़ी पत्ती के वृक्ष लगे और इन पहाड़ियों के बीच से आ रहे नदी, नालों के पानी से घराट और नहरें बनाकर बिजली एवं सिंचाई की व्यवस्था की जाये। इसको ध्यान में रखते हुए हिमालय नीति के लिये केंद्र सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है।

हिमालय की पानी, मिट्टी देश के काम आ रही है। यहां अभी शुद्ध ऑक्सीजन का भण्डार बचा है। हिमालय जलवायु को नियंत्रित कर रहा है, यहां से निकलने वाले गाड़-गदेरे, नदियां और ग्लेशियरों को भी हिमालय ने जीवित रखा है। लेकिन मौजूदा समय में हिमालय में चल रहे उपभोक्तावादी, शोषणयुक्त, अविवेकपूर्ण अस्थाई विकास कभी भी स्थायित्व ग्रहण नहीं कर सकता है। इसलिए देश के योजनाकारों, राजनेताओं, वैज्ञानिकों को अब यह समझना चाहिए कि हिमालयी समाज, संस्कृति ,पर्यावरण के साथ-साथ देश की सुरक्षा के लिये तत्पर हिमालय को विकास के नाम पर मैदानों के भौगोलिक आकार-प्रकार के अनुसार नहीं मापा जा सकता है।

गंगा के उद्गम हिमालय की सुरक्षा पर गंभीरता से विचार नहीं किया जा रहा है। यह अवश्य है कि संसद में इस पर चर्चा भी हो चुकी है। हिमालय के लिये अलग मंत्रालय बनाने की वकालत की गई है। लेकिन अब तक न तो मंत्रालय बना और न ही हिमालय नीति पर कोई विचार किया गया है।

हिमालय और इसके निचले क्षेत्रों पर तेजी से बढ़ रहे जलवायु परिवर्तन के कारण भी संकट बढ़ेगा, इसके अलावा सुरंग बांधों के
श्रृंखलाबद्ध निर्माण से हिमालयी नदियां सूखकर मटियामेट होने की संभावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता हैं। इसके परिणाम होंगे कि हिमालयी राज्यों से विस्थापन एवं पलायन की समस्या बढ़ेगी। क्योंकि हिमालय के प्राकृतिक संसाधनों का शोषण, वैश्विक व निजीकरण की कुचेष्टाओं पर आधारित हो गया है। अधिकांश हिमालयी राज्यों की स्थिति यह है कि यहां के निवासी जल, जमीन और सघन वनों के बीच रहकर भी उनका इन पर अधिकार नहीं हैं।

प्रत्येक वर्ष लगभग 12 लाख मिलियन क्यूबिक मीटर पानी हिमालय की नदियों से बहता है, जो पूरे देश में 40 प्रतिशत जलापूर्ति करता है। जिसमें असंख्य जलचर प्राणियों का एक संसार निवास कर रहा है, जिसके लिए लगातार जल प्रवाह को बनाए रखने की आवश्यकता है। इसलिए वैज्ञानिकों के अनुसार मांग की जाती है कि हिमालयी राज्यों में नदियों का जल बहाव निरंतर एवं अविरल रखना अनिवार्य है। हिमालय का वन क्षेत्र स्वस्थ पर्यावरण के मानकों से अभी बचा हुआ है, इसके लिए जैवविविधता का संरक्षण व संवर्द्धन स्थानीय लोगों के साथ मिलकर करने की आवश्यकता है। हिमालयी क्षेत्रों में होने वाली कुल वर्षा का 5 प्रतिशत भी उपयोग में नहीं आता है।

हिमालय में चल रहे विनाशकारी बड़े निर्माण कार्य जैसे चौड़ी सड़क, बांध, पंचतारा संस्कृति, वनों का व्यावसायिक दोहन आदि के कारण प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब दोहन हो रहा है। बाढ, भूकम्प, सूखा, वनाग्नि जैसी घटनाओं की पिछले 35 वर्षों से लगातार पुनरावृत्ति हो रही है, जिससे यहां के छोटे किसान प्रभावित हो रहे हैं।

यह स्थिति केवल हिमालय क्षेत्र में ही नहीं बल्कि देशभर में इसके प्रभाव क्षेत्र में रह रहे लोगों के जीवन एवं जीविका संकट में पड़ गयी है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2006 कहती है कि पर्वतों के संरक्षण के लिये समुचित भूमि उपयोग, संवेदनशील क्षेत्रों को बचाने के लिये बुनियादी निर्माण, किसानों को उनके उत्पादों का लाभ दिलाना, पर्यटन से स्थानीय लोगों की आजीविका चलनी चाहिये, पर्यटकों की संख्या के आधार पर पर्यटक स्थलों की क्षमता को देखकर ही प्राथमिकता होनी चाहिये। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन पर एनएपीसीसी में राष्ट्रीय हिमालय इको सिस्टम के अन्तर्गत हिमालयी ग्लेशियरों पर उत्पन्न संकट का समाधान करने के लिये समुदाय आधारित वनभूमि संरक्षण के प्रबंधन पर राज-समाज को मिलकर कार्य योजना बनाने की आवश्यकता है।

भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल में से 16.3 प्रतिशत क्षेत्र में उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, असम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, नागालैण्ड, मिजोरम, अरूणाचल, सिक्किम, पश्चिम बंगाल का दार्जलिंग जिला हिमालय क्षेत्र में है। इस भारतीय हिमालयी राज्यों में वन्य जीवों की 1280 प्रजातियां, 8000 पादप प्रजातियां, 816 वृक्ष प्रजातियां, 675 वन्य खाद्य प्रजातियां, 1740 औषधीय पादपों की प्रजातियां मौजूद है। यहां की जनसंख्या लगभग 9 करोड़ है, जिसमें 5 करोड़ लोग आज भी ईंधन के लिये लकड़ी का प्रयोग करते हैं। हिमालय की पर्यावरणीय सेवाओं का हिसाब किताब लगाना बहुत जरूरी हो गया है क्योंकि इस क्षेत्र में अभी भी जंगल और नदियां बची हुई है जिसमें स्थानीय लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है।

हिमालय पूरे दक्षिण एशिया में प्रत्यक्ष तथा एशिया के लिये अप्रत्यक्ष रुप से लगभग 944 अरब के बराबर पर्यावरण सेवा (ईको सर्विस) प्रदान करता है। इस भू-भाग से निकलने वाली नदियां व उनके साथ बहकर जाने वाली लगभग 36 करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी न केवल गंगा, यमुना के मैदान बल्कि सम्पूर्ण भारत वर्ष व दक्षिण एशिया के कई देशों के लिए खाद्य सुरक्षा हेतु स्थाई प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। मानसून जैसे वर्षा चक्र के निर्माण में भी हिमालय का महत्वपूर्ण योगदान है।

हिमालय आध्यत्मिक प्रेरणा का स्त्रोत है और यह प्राकृतिक देन है। इसके अंग-प्रत्यंग (नदी, ग्लेशियर, जंगल, जमीन) बिकाऊ नहीं बल्कि टिकाऊ बनाये रखने में हमारी भूमिका होनी चाहिये। केन्द्र की सरकार को हिमालय नीति बनाने के लिये कदम बढाने चाहिए। जिसमें जलवायु एक्शन प्लान, ग्रीन कन्ट्रक्शन, ईको सर्विस, वनाधिकार, आपदाओं का प्रबंधन, सूक्ष्म एवं लघु जल विद्युत परियोजनाओं का विस्तार, जल संरक्षण, हरित क्षेत्र एवं कृषि क्षेत्र का बचाव कर किसानों की आजीविका बचाने के उपाय मजबूत करने पड़ेंगे।

( सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश भाई के लेख पर आधारित )

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